April 16, 2024

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“लोकतंत्र सचमुच खतरे मे है”।

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लेख – रमेश कुमार जायसवाल (एडवाकेट)

उत्तराखंड : भारतवर्ष में वर्तमान मे प्रचलित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था मे पिछले काफी समय से यह जुमला कि ‘लोकतन्त्र खतरे मे है, बहुत प्रचलित है जिसे कपितय क्षुद्र राजनीतिक दलों , संगठनों तथा कई बुद्विजीवियों द्वारा अपने निहित स्वार्थ या किसी साजिश के तहत जान-बूझ कर प्रचारित व प्रसारित करवाया जाता रहा है। अब प्रश्न यह है कि भारत मे क्या सचमुच लोकतंत्र खतरे मे है, यदि नहीं तो उपरोक्त जुमले को क्यों झूठमूठ मे प्रचारित किया जाता है, और यदि हां, तो भारत मे लोकतन्त्र को खतरा किन बातों से व किससे है, यह भारतवर्ष के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बहुत ही महत्वपूर्ण व अत्यन्त विचारणीय विषय बन जाता है।

भारतवर्ष मे चुनाव जीतकर किसी प्रकार से सत्ता में कोई भागीदारी हासिल कर लेना वर्तमान मे सबसे सुरक्षित व लाभप्रद व्यवसाय सिद्व हो चुका है, जिस कारण अनेक बेईमान, स्वार्थी, मतलबी, अवसरवादी, भ्रष्ट, असामाजिक व अपराधी यहां तक कि देशद्रोही प्रवृति के व्यक्ति भी किसी क्षेत्रिय-स्थानीय राजनीतिक पार्टी से जुडकर केवल पैसों के दम पर अपनी क्षुद्र राजनीति चमकाने के लिये हरसंभव प्रयास करने मे जुट जाते हैं। भारत के वर्तमान लोकतान्त्रिक परिदृश्य में राजनीतिक पार्टियां ही सबसे ज्यादा निरंकुश व अनियंत्रित परिलक्षित होती हैं। राजनीतिक दल भी कितने, जिसकी कोई सीमा ही हमारे संविधान में निश्चित नहीं की गई है। भारत में अनेकों राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों के अतिरिक्त प्रादेशिक, क्षेत्रिय, जातीय, भाषीय व वर्ग एवं धार्मिक आधारों पर असंख्य स्थानीय राजनीतिक दल बनाये जा चुके हैं, जो केवल अपने वर्ग विशेष के हितों व अपने निजी स्वार्थों को साधने के लिये ही अपनी क्षुद्र, अवसरवादी एवं छल-कपट की राजनीति लोकतन्त्र के नाम पर करने में लगे हुये हैं। एक राष्ट्र के रूप में भारत की मर्यादा, सुरक्षा, समृद्वि, प्रगति व विकास की अवधारणा से इन्हे कोई सरोकार नहीं होता और नाही अपने अतिरिक्त समाज के किसी अन्य वर्ग के हितों की इन राजनीतिक दलों को किसी प्रकार की कोई चिन्ता ही होती है। परन्तु फिर भी इन्हे अपनी गन्दी व स्वार्थी राजनीति करते रहने की पूरी तरह से खुली छूट मिली हुई है। अनेक देशविरोधी शक्तियां विभिन्न राजनीतिक दलों के आवरण में छिपाकर एक सोची-समझी-सुनियोजित साजिश के तहत अपना देशविरोधी घृणित कार्य सुरक्षित रूप से करने मे पूरी तरह से तल्लीन हैं।

चुनाव से पहले या चुनाव के बाद केवल सत्ता हथियाने के लिये अथवा सत्ता में किसी प्रकार से भागीदारी/हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिये यह सभी किसी भी प्रकार का और किसी भी अन्य राजनीतिक दल/दलों के साथ गठबंधन करने के लिये सदैव तैयार रहते हैं, चाहे उसी राजनीतिक दल /दलों के विरूद्व उसने चुनाव लडा है तथा जनता से उनके विरूद्व ही मत अपने लिये मांगा हो। ऐसी परिस्थिति मे कोई ईमानदार, राष्ट्रवादी, सच्चे व कर्मठ उम्मीदवार का चुनाव जीत पाना बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि उसे यह बेईमान, मतलबी, भ्रष्ट व बदमाश प्रत्याशी आपस में मेलजोल कर निश्चित ही हरा देंगे, तब कहां का लोकतन्त्र बचेगा। क्योंकि चुनाव जीतने के बाद जनता की भलाई व विकास के कामों को करने की बजाय ये तो केवल अपने स्वार्थों को ही सिद्व करने मे लगे रहते हैं। अपना प्रभाव बनाने लायक स्थिति प्राप्त करने के लिये ये सभी संकीर्ण राजनीतिक दल आम जनमानस को धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, बोली व वर्ग, सम्प्रदाय के आधार पर बांटने व उनके बीच आपसी वैमनस्य-मतभेद बढाने में ही हमेशा लगे रहते हैं जिससे हमारा समाज लगातार विखण्डित होता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में किसी देश में एक स्वस्थ व सुदृण लोकतन्त्र की स्थापना कैसे सम्भव हो सकती है। इन सभी प्रादेशिक, क्षेत्रिय, जातीय, भाषीय व वर्ग एवं धार्मिक आधारों पर बनी स्थानीय राजनीतिक दलों में राष्ट्र के प्रति निष्ठा व सम्मान, देश की सुरक्षा, शान्ति व समृद्वि तथा देश के समग्र विकास में अपना कोई योगदान देने के लिये न तो कोई नीति होती है और नाही कोई चिन्ता। वास्तव में विभिन्न स्थनीय राजनीतिक दलों की यही लालची व क्षुद्र स्वार्थी प्रवृति, विघटनकारी व अवसरवादी सोच एवं बे-मेल किये जाने वाले चुनावी गठबंधन ही भारतीय लोकतन्त्र के लिये सबसे बडा खतरा बन चुके है।

क्रमशः 2

-2- भारतवर्ष में मताधिकार 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी व्यक्तियों को देश के संविधान द्वारा प्रदान किया गया है, उनकी इस हेतु योग्यता की किसी प्रकार से परीक्षा किये बिना ही। चुनावों में हार – जीत का निर्णय करने के लिये कुल मतों की कोई कम से कम प्राप्त संख्या भी निर्धारित नहीं की गई है। चुनावों मे सबसे अग्रणी मत संख्या प्राप्त करने वाले प्रत्याशी को विजयी घोषित कर दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति आसानी से किसी भी चुनाव प्रत्याशी के द्वारा दिये गये लालच, प्रलोभन, आश्वासन अथवा किसी भय, प्रभाव या बहकाये में आकर अपना मत उसे देता है तो वह किस प्रकार के लोकतन्त्र की स्थापना में योगदान कर रहा है। तिस पर भारत वर्ष मे पूर्व मे धर्मान्तरित हुए लागों का एक विशेष रूप से प्रशिक्षित कटटर समुदाय जो अपने धार्मिक हाईकमान के एक निर्देश पर पूरी तरह से एकजुट व संगठित हो जाने की विशेष योग्यता रखता है, केवल अपनी जनसंख्या के आधार पर ही किसी भी चुनाव में हार-जीत तय करने मे निर्णायक स्थिति में पहुच गया है। जबकि शेष बहुसंख्यक समाज असंख्य जातियों, उपजातियों, गरीब-अमीर, अगडे-पिछडे, उंच-नीच की भावना से ग्रसित, कुण्ठित, विभाजित हो चुका है तथा आपसी फूट एवं मतभेद के कारण कभी भी संगठित नहीं हो सकता, इनके लिये तो केवल अपना जीवन निर्वाह ही उनके जीवन की सबसे बडी चुनौती है, इस वर्ग के लोगों को कोई भी चुनाव प्रत्याशी अथवा क्षेत्रिय राजनीतिक दल फ्री में कुछ सुविधायें प्रदान करने का लालच देकर आसानी से अपनी ओर मोड लेता है। इस वर्ग के लोगों के लिए समग्र देश की सुरक्षा, उन्नति व विकास, आर्थिक प्रगति व सम्मान का कोई ज्यादा मायने नही होता लेकिन मताधिकार प्राप्त होने की वजह से यह वर्ग किसी भी स्वार्थी, मतलबी, विघटनकारी, संकीर्ण सोच वाले प्रत्याशी को चुनावों मे मतदान करके जितवा देता है क्यांेकि ऐसे ही अधिक से अधिक व्यक्तियों को ऐन-केन प्रकारेण अपने पक्ष में करके कोई भी प्रत्याशी किसी भी चुनाव में आसानी से अपनी जीत सुनिश्चित कर लेता है। इस प्रकार होने वाले चुनावो से देश में लोकतन्त्र कितने दिनों तक सुरक्षित एवं गरिमापूर्ण तरीके से स्थापित रह सकेगा।

भारतवर्ष में लोकतन्त्र वास्तव में बहुत ही खतरनाक स्थिति में पहुंचता जा रहा है। आज यदि कोई राष्ट्रवादी देशभक्त व्यक्ति अथवा राजनीतिक पार्टी भारत के विकास, सुरक्षा, समृद्वि, आर्थिक प्रगति एवं उन्नति में अपना योगदान करने के लिये दृणसंकल्पित होकर कार्य करना चाहे तो उसके सामने सबसे बडी चुनौती देश में बसी देश विरोधी ताकतें है जो विभिन्न राजनीतिक पार्टियों, तथाकथित लिबरल-सैक्यूलर पत्रकार व बुद्विजीवी वर्ग के आवरण में छिपकर उसके विरूद्व एकजुट होकर कार्य करने लगती हैं। आजकल भारत में हर राष्ट्रवादी, प्रगतिशील विचार एवं कार्यों का सामूहिक रूप से विरोध करने का फैशन देश मे बहुत तेजी से फैल जाता है, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी, आधुनिकता व सैक्यूलरिज्म का मुल्लमा चढाकर आम जनता को दिखाया जाता है। यदि समय रहते उपरोक्त परंपराओं पर कोई सक्षम अंकुश नही लगाया गया तो भविष्य मे भारत मे लोकतन्त्र के अस्तित्व के लिये बहुत बडा खतरा उत्पन्न हो जायेगा क्योंकि किसी भी चुनाव मे मतदाताओं की कुल संख्या में से केवल 70/75 प्रतिशत मतदाता ही अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। यदि 100 में से केवल 70-75 व्यक्ति मतदान करेंगे जिनमे लगभग 25 व्यक्ति विशेष वर्ग के हैं जोकि एकजुट होकर किसी एक के पक्ष मे मतदान करते हैं और शेष बचे 50 व्यक्तियों के मत अन्य प्रत्याशियों मे विभाजित हो जाते हैं तो उस चुनाव में निश्चित ही वह प्रत्याशी विजयी होगा जिसे उपरोक्त विशेष वर्ग का समर्थन हासिल होगा। लेकिन सबसे बडा खतरा तो यह है कि तब क्या होगा जब इस विशेष वर्ग की संख्या 45 से 50 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी, निश्चित ही तब लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव हो ही नही पायेंगे और तब केवल अराजकता एवं निरंकुशता का ही बोल-बाला होगा तथा सत्ता जर्बदस्ती इनके द्वारा हासिल कर ली जायेगी। अतः अभी भी समय है कि भारत सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ सार्थक कार्य समय रहते कर लिया जाये, कही ऐसा ना हो कि भविष्य में चाहकर भी कुछ कर पाने मे स्वयं भारत सरकार भी असमर्थ हो जाये।

यह अपने देश व समाज के प्रति मेरी व्यक्तिगत चिन्ता है। भारतवर्ष मे लोकतन्त्र का एक शुभाकांक्षी।

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